स्टिंग ऑपरेशन का सच गायब होता हुआ

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि स्टिंग ऑपरेशन को घात पत्रकारिता या डंक पत्रकारिता भी कहा जाता है लेकिन स्टिंग ऑपरेशन एक ऐसा सच भी होता है जिसको साबित करने के लिए हमें उचित तथ्यों के साथ-साथ विषय,व्यक्ति के बारे में भी सारी जानकारी एकत्र करनी होती है। दरअसल घात पत्रकारिता खोजी पत्रकारिता की कोख से ही निकली है लेकिन इसमें दस्तावेज से अधिक दृश्य फोटो का विशेष महत्व होता है क्योंकि घात पत्रकारिता में दृश्य को सुबूत की तरह इस्तेमाल किया जाता है। आज इतना अधिक नहीं लेकिन एक समय था जब सभी चैनलों में स्टिंग ऑपरेशन की बाढ़ सी आई हुई थी क्योंकि यह सनसनी पैदा करती है। स्टिंग ऑपरेशन से तात्पर्य ही यह हुआ कि किसी गड़बड़ी का छिपकर या अपनी पहचान छिपाकर यानी डेकाय बनकर छल से किसी कुकृत्य, गैर कानूनी काम,मिलावट,रिश्वतखोरी,साजिश,अपराध,जालसाजी को प्रमुखता से दिखाया जाता है क्योंकि उस सनसनी से हमारे आप जैसे दर्शक चीजों को जानने समझने के लिए उत्साहित हो उठते हैं। हमारे देश में तो कई ऐसे उच्च कोटि के पत्रकार जैसे इंडियन एक्सप्रेस के अश्विनी सरीन, वरिष्ठ पत्रकार व सांसद रहे अरुण शौरी, तहलका के वरिष्ठ पत्रकार अनिरुद्ध बहल व तरुण तेजपाल, द हिंदू के संपादक पी साईनाथ जैसे कई जाने माने खोजी पत्रकारों ने समाचार संकलन के क्षेत्र में गहन शोध की परंपरा को आगे बढ़ाया है। दरअसल स्टिंग ऑपरेशन का सीधा संबंध गोपनीयता से है इसमें संवाददाता को अपनी पहचान छिपाकर बहरूपिया बनकर पूछताछ करने जैसी कलाओं का अच्छा ज्ञान एवं कौशल होना चाहिए। स्टिंग ऑपरेशन करना किसी के लिए भी इतना आसान नहीं है क्योंकि इसके लिए सही तरीका,समय और स्थितियों को बुनना पड़ता है। यही नहीं इस टीम के लिए आपके पास पर्याप्त संसाधन होने भी जरूरी है इसमें मोबाइल, स्पाई कैमरा,वॉइस रिकॉर्डर और कई बार Mini सीसीटीवी कैमरे का भी इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना जरूरी है कि जब किसी स्टिंग ऑपरेशन के विरोध में कोई अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो संवाददाता को जवाब भी देना पड़ सकता है कि जो स्टिंग ऑपरेशन किया गया है वह जनहित से कैसे संबंध रखता है। मांगे जाने पर संवाददाता को फॉरेंसिक जांच के लिए उन दृश्यों की मूल प्रति भी देनी पड़ सकती है लिहाजा स्टिंग ऑपरेशन के लिए अतिरिक्त सावधानी और समझदारी की आवश्यकता होती है।

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